चेतना जयसवाल
प्रेरणा स्कूल
दर्पण(कविता )
दुल्हन के जोड़े में
रोशनी की जगमगाहट के बीच,
दुसरे आंगन में जाती हूँ मैं
खुद को लाचार, डरी व सहमी सी पाती हूँ मैं
रस्मों की अठखेलियों के बीच ,
अपने धर्म, अपने कर्तव्य, अपने संस्कारों को मन ही मन दोहराती हूँ मैं
माँ बाप का मान रहें,
पति की शान रहे ,
दो घरो के बीच
इस माला को पिरोती रह जाती हूँ मैं ,
बहुत लम्बे समय बाद ,
एक दिन अपने लिये,
Mrs so and so ———-
जब कानों में सुनायी देता है ,
तो शीशे के सामने ,
गालो की झुर्रियों के बीच ,
अपना वजूद (अस्तित्व ) ढूढती रह जाती हूँ ,
मैं कौन हूँ ? मैं कौन हूँ ? मैं कौन हूँ ?