सुनो, ऋतुराज

 

 

आशा बाली
हिंदी अध्यापिका, स्टडी हॉल
 
 
 

जीवन चैतन्य के आधार !
गतिशीलता के पर्याय !
उल्लास, उत्फुल्लता, उर्जा
तरुणाई,प्रेम,आभा , सौंदर्य
नव किसलयों पर कूक
आम्रगंध, बसंती बयार
चतुर्दिक व्याप्त सुषमा
संसृति पुष्पित पल्लवित किससे है?
जानते हो?
सभी कुछ तो मुझसे है।

लिखते पलाश की रक्तिम आभा सी

प्रथम दिन गई माँ की गोद में ज्यों मै
गृह लालिमामय लड़ैती लाडली से उद्भासित जीवन
पराग कण बिखरे प्रेम वात्सल्य के
एक विशाल मैंने उड़ान के स्वप्न
समाहित था उसी में
मेरी लड़ैती होने का एहसास।

और

गौरवान्वित हूँ कि मैं हूँ लड़की
प्रतीक हूँ मैं विकास कल्ल्याण का
क्रांति उत्थान का
समाज के स्थायित्व का
संगम हूँ, विद्वता, विनाश,
कोमलत्व, ममत्व का
वैज्ञानिक शोध, संगीत की मधुर तान
गणित की जटिलता, सभी में मेरा योगदान।
“वर्चस्व ” पर पाई मैंने सदा विजय
जगद्जननी बनी, संहारिणी बनी
संसृति का केंद्र बिंदु मै ही रही,
अग्नि की लपटों को छुआ है मैंने
और अविचलित धुरी बन

गार्गी, अपाला,मीरा

वीरांगना लक्ष्मी, कल्पना विलियम्स
बन सीता सी सहचरी
तापी हूँ मै, स्वर्ण सम

 

किया है मैंने भूत, भविष्य, वर्तमान एक रूप
दिया है मैंने अपनी ‘कुछि’ से जीवन स्वरुप
पूर्वजों के वंशज को
कोमल साक्ष्य को।
सूत्रधार हूँ मै, संसृति की हर कसौटी पर खरी उतरी हूँ, मैं।
विलक्षण अस्तित्व की स्वामिनी हूँ, मैं।

 

सुनो, ऋतुराज सुनो !
क्या अनिभिज्ञ हो तुम
इस वास्तविकता से?
कि, छिपी हैं मुझमें ही
प्रचंड काली,भैरवी भी,
फिर, मेरा आज यह अपमान क्यों ?
क्या चाहते तुम
इस संसृति का विनाश ?
सुनो, ऋतुराज सुनो!
सुनो, ऋतुराज सुनो!

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One thought on “सुनो, ऋतुराज

  1. i am really impressed by this poem and just wanna say to all the women in society that its enough now ! we have to do something together for our self! don’t let it be anymore !
    thanks

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